Gandhari’s Deadly Curse :वंश का विनाश!

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Gandhari’s Deadly Curse

 महाभारत के युद्ध का समापन होते ही कौरवों का विनाश हो चुका था, और गांधारी के 100 पुत्रों में से एक भी जीवित नहीं बचा था। पुत्र शोक में डूबी गांधारी अपने अंतिम बचे पुत्र दुर्योधन की सुरक्षा को लेकर चिंतित थी। जब युद्ध के अंतिम चरण में दुर्योधन घायल अवस्था में बचा था, तब गांधारी ने उसे आदेश दिया कि वह स्नान करके वस्त्र रहित उसके सामने आए। गांधारी ने जीवनभर अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी थी, लेकिन उसके भीतर दिव्य दृष्टि की शक्ति थी। वह चाहती थी कि जब वह अपनी आंखों से दुर्योधन को देखे तो उसका शरीर वज्र (diamond) के समान कठोर हो जाए ताकि उसे कोई मार न सके। लेकिन श्री कृष्ण को यह भली-भांति ज्ञात था कि यदि ऐसा हुआ तो अधर्म की विजय होगी। उन्होंने दुर्योधन के मन में यह विचार डाल दिया कि बिना वस्त्र के अपनी मां के सामने जाना अशोभनीय होगा। दुर्योधन इस छल को समझ न सका और कमर के नीचे वस्त्र पहनकर गांधारी के सामने पहुंचा। गांधारी ने जब आंखों से उसे देखा, तो उसका सारा शरीर वज्र के समान हो गया, लेकिन उसकी जांघें सामान्य ही रह गईं। यही कारण था कि भीम ने युद्ध में दुर्योधन की जांघों पर वार कर उसे पराजित किया और अंततः उसकी मृत्यु हो गई।

गांधारी का जीवन केवल महाभारत के युद्ध तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उसके जीवन में कई अनकहे रहस्य भी छुपे थे। गांधारी, गांधार राज्य के राजा सुबाल की पुत्री थी और इस कारण उसे गांधारी कहा जाता था। धृतराष्ट्र के साथ उसका विवाह जबरन कराया गया था, क्योंकि भीष्म पितामह चाहते थे कि कुरुवंश की शक्ति और स्थिरता बनाए रखने के लिए एक शक्तिशाली राज्य से संबंध जोड़ा जाए। किंतु गांधारी के पिता और भाई शकुनी इस विवाह के लिए राजी नहीं थे, क्योंकि धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे। एक अन्य कथा के अनुसार, गांधारी का विवाह पहले एक बकरे से कराया गया था और फिर उसकी बलि दे दी गई थी। यह एक शास्त्रीय उपाय माना जाता था जिससे उसके पति पर कोई संकट न आए। जब यह बात धृतराष्ट्र को ज्ञात हुई, तो वह अत्यंत क्रोधित हुए और गांधारी के पूरे परिवार को कारागार में डाल दिया। इस कैद के दौरान उनके परिवार के सभी सदस्यों को केवल एक व्यक्ति के खाने लायक भोजन मिलता था। ऐसे में राजा सुबाल ने सोचा कि उनके सबसे छोटे पुत्र शकुनी को ही भोजन दिया जाए ताकि परिवार का कोई एक सदस्य जीवित रह सके और अपने अपमान का बदला ले सके। अंततः, शकुनी ही जीवित बचा और उसने कुरुवंश के विनाश की शपथ ली। यही कारण था कि उसने दुर्योधन को हमेशा अधर्म की राह पर चलने के लिए उकसाया और महाभारत के युद्ध का कारण बना।

गांधारी के बारे में एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि वह 100 पुत्रों की जननी थी, लेकिन उसने प्राकृतिक रूप से बच्चों को जन्म नहीं दिया था। वेद व्यास ने उसे 100 पुत्रों की मां बनने का वरदान दिया था, लेकिन जब वह गर्भवती हुई तो उसके गर्भ से केवल एक मांस पिंड निकला। इस पिंड को 100 टुकड़ों में विभाजित कर घड़ों में रखा गया, जिनमें से प्रत्येक से एक कौरव जन्मा। इसी प्रकार, एक अन्य घड़े से दुश्शाला नाम की पुत्री का जन्म हुआ। महाभारत के युद्ध में अंततः सभी कौरव मारे गए, जिससे गांधारी पूर्णतः अकेली हो गई।

महाभारत युद्ध के उपरांत, जब गांधारी ने श्री कृष्ण को देखा तो वह अत्यंत क्रोधित हो गई। उसने श्री कृष्ण को अपने पुत्रों की मृत्यु का जिम्मेदार ठहराया और उन्हें श्राप दिया कि जिस प्रकार उसके 100 पुत्रों का विनाश हुआ है, उसी प्रकार यादव वंश का भी नाश हो जाएगा। श्री कृष्ण ने गांधारी के इस श्राप को स्वीकार कर लिया और कहा कि यदि इससे उसे शांति मिलती है तो ऐसा ही होगा। इस श्राप के फलस्वरूप यादवों ने आपसी संघर्ष में एक-दूसरे का संहार कर दिया और अंततः श्री कृष्ण ने भी शरीर त्याग दिया। द्वारका नगरी समुद्र में समा गई और इस प्रकार गांधारी का श्राप सत्य सिद्ध हुआ।

लेकिन प्रश्न यह उठता है कि गांधारी की स्वयं की मृत्यु कैसे हुई? महाभारत के युद्ध के बाद, जब युधिष्ठिर राजा बने, तो धृतराष्ट्र, संजय, कुंती और गांधारी ने सन्यास लेकर वनगमन का निर्णय लिया। वे जंगल में रहकर तपस्या करने लगे। तीन वर्ष बीत गए, और एक दिन जब धृतराष्ट्र गंगा में स्नान करने गए, तभी जंगल में भयंकर आग लग गई। संजय ने सभी से वहां से निकलने का अनुरोध किया, किंतु धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती ने जाने से मना कर दिया। वे तीनों वहीं रुक गए और अंततः अग्नि में जलकर उनकी मृत्यु हो गई। बाद में नारद मुनि ने यह सूचना युधिष्ठिर को दी और उन्होंने अपने परिजनों का अंतिम संस्कार किया।

गांधारी का जीवन केवल एक पत्नी या माता के रूप में ही नहीं देखा जा सकता, बल्कि वह एक सशक्त नारी भी थी। उसने अपने पति के प्रति अटूट प्रेम और निष्ठा दिखाई। धृतराष्ट्र की अंधता के बावजूद उसने अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर उनकी वेदना को आत्मसात किया और जीवनभर उसी कष्ट को जिया। साथ ही, गांधारी के चरित्र में एक दृढ़ता भी थी, जिसने उसे अपने पुत्रों की मृत्यु पर विलाप करने के बजाय अधर्म के खिलाफ खड़े होने का साहस दिया।

गांधारी का जीवन त्याग, प्रेम, निष्ठा और धैर्य का प्रतीक है। महाभारत की कथा में वह एक महत्वपूर्ण पात्र रही जिसने न केवल अपने पुत्रों के लिए संघर्ष किया, बल्कि धर्म और अधर्म के बीच के संघर्ष को भी गहराई से समझा। उसकी कहानी हमें यह सिखाती है कि नियति को टालना संभव नहीं है, लेकिन उसके सामने खड़े रहने का साहस होना चाहिए।

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