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Religion from China |
चीन का इतिहास क्रांति, सत्ता के संघर्ष और बदलावों से भरा रहा है। बीसवीं सदी चीन के लिए एक महत्वपूर्ण दौर था, जहां देश ने साम्राज्यवादी शासन से लेकर कम्युनिस्ट सरकार तक का सफर तय किया। लेकिन इस दौरान चीन के धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को सबसे ज्यादा चोट पहुंची। सदियों पुरानी धार्मिक परंपराओं और आस्थाओं को नए समाजवादी विचारों के नाम पर मिटाने की कोशिश की गई। 1911 में चिंग वंश के पतन के बाद चीन को गणराज्य घोषित किया गया, लेकिन पारंपरिक धर्मों जैसे बौद्ध धर्म, ताओवाद और कन्फ्यूशीवाद का प्रभाव बना रहा। नई सरकार ने धर्म को समाज के लिए हानिकारक मानते हुए इसे धीरे-धीरे नियंत्रित करना शुरू किया। मंदिरों को सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया गया, कुछ पर कर (tax) लगाया गया और धार्मिक गतिविधियों पर निगरानी बढ़ा दी गई। ईसाई धर्म ने थोड़ी बढ़त हासिल की, लेकिन राष्ट्रवादी भावनाओं के चलते इसे भी कई बार विरोध का सामना करना पड़ा।
1927 में, जब चीन पर कोमिनतांग (Kuomintang) यानी नेशनलिस्ट सरकार का नियंत्रण बढ़ा, तो नेता च्यांग काई-शेक ने 'न्यू लाइफ मूवमेंट' शुरू किया, जो कन्फ्यूशियस और ईसाई मूल्यों का मिश्रण था। हालांकि, इसका मकसद धार्मिकता को बढ़ावा देना नहीं था, बल्कि नैतिक अनुशासन को मजबूत करना था। धीरे-धीरे, समाज से धर्म को पूरी तरह हटाने की कोशिशें तेज होने लगीं। लेकिन नेशनलिस्ट पार्टी ज्यादा समय तक अपनी सत्ता कायम नहीं रख सकी और 1927 के बाद से ही चीन में गृहयुद्ध शुरू हो गया, जो कम्युनिस्ट पार्टी और कोमिनतांग के बीच लड़ा गया।
1935 में, जब कम्युनिस्ट पार्टी की कमान माओ ज़ेडोंग के हाथों में आई, तब चीन में बड़े बदलाव आने लगे। 14 सालों तक चले इस संघर्ष के बाद, 1949 में माओ की अगुवाई में कम्युनिस्ट क्रांति सफल रही और चीन 'पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना' बन गया। सत्ता में आते ही, माओ ने एक नई नीति लागू की, जिसके तहत चीन को नास्तिक राज्य (atheistic state) घोषित कर दिया गया। यानी सरकार किसी भी धार्मिक प्रथा या ईश्वर को मान्यता नहीं देगी। हालांकि, माओ ने शुरू में धर्म पर पूरी तरह प्रतिबंध नहीं लगाया क्योंकि उन्हें डर था कि गांवों में बड़े पैमाने पर विद्रोह हो सकता है। इसलिए, केवल उन्हीं धार्मिक प्रथाओं को मान्यता दी गई, जो सरकार के नियंत्रण में थीं या कम्युनिस्ट पार्टी के विचारों का समर्थन करती थीं। बाकी धर्मों को 'पिछड़ा' और 'रूढ़िवादी' करार देकर दबाया जाने लगा। ईसाई धर्म पर भी प्रतिबंध लगे, लेकिन इसके बावजूद धर्म पूरी तरह खत्म नहीं हुआ।
1966 में, माओ ज़ेडोंग ने 'सांस्कृतिक क्रांति' (Cultural Revolution) की शुरुआत की, जिसका मुख्य उद्देश्य चीन से धर्म को पूरी तरह खत्म करना और इसे एक नास्तिक एवं प्रगतिशील राज्य बनाना था। यह क्रांति इतनी हिंसक और क्रूर थी कि इस दौरान करीब 10 लाख से अधिक लोगों की जान चली गई। मंदिरों, चर्चों और मस्जिदों को नष्ट कर दिया गया, धार्मिक ग्रंथों को जला दिया गया और धार्मिक गुरुओं को यातनाएं दी गईं। माओ का मानना था कि धर्म एक अफीम की तरह है, जो समाज को कमजोर बनाता है और आर्थिक विकास में बाधा डालता है। इसलिए, उन्होंने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि चीन का हर नागरिक केवल कम्युनिस्ट विचारधारा का पालन करे।
माओ ने इस क्रांति को लागू करने के लिए 'रेड गार्ड्स' (Red Guards) नामक युवा क्रांतिकारी समूह बनाए, जो स्कूलों और कॉलेजों के छात्रों से मिलकर बने थे। इन रेड गार्ड्स ने धार्मिक स्थलों को ध्वस्त किया, ऐतिहासिक धरोहरों को जला दिया और जो लोग धार्मिक थे, उन्हें 'विरोधी' करार देकर प्रताड़ित किया गया। धार्मिक प्रतीकों जैसे कि क्रॉस और हिजाब को पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। धार्मिक शिक्षकों और विद्वानों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया और कई को जेलों में डाल दिया गया। जो लोग धर्म छोड़ने को तैयार नहीं थे, उन्हें या तो मार दिया गया या फिर 'पुनः शिक्षा शिविरों' (re-education camps) में भेज दिया गया, जहां उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा अपनाने के लिए यातनाएं दी जाती थीं।
माओ की मृत्यु 1976 में हुई, जिसके बाद चीन में धीरे-धीरे आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई। 1982 में, चीन का नया संविधान लागू किया गया, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता की घोषणा की गई। लेकिन यह स्वतंत्रता नाम मात्र की थी। संविधान के अनुच्छेद 36 के तहत नागरिकों को धर्म मानने की अनुमति दी गई, लेकिन इसके साथ ही सरकार ने धर्म पर सख्त नियंत्रण भी रखा। केवल सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त धार्मिक संस्थानों को ही पूजा करने की अनुमति दी गई, और उन्हें भी सख्त सरकारी नियमों का पालन करना पड़ा। चर्चों, मस्जिदों और मंदिरों को सरकार के साथ पंजीकृत करना अनिवार्य बना दिया गया। धार्मिक नेताओं की नियुक्ति भी सरकार द्वारा की जाने लगी, ताकि वे कम्युनिस्ट विचारधारा को आगे बढ़ा सकें।
आज भी चीन में धार्मिक स्वतंत्रता नाममात्र की ही है। जो धर्म सरकार के अनुकूल नहीं हैं, उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। क्रिसमस जैसे त्योहारों को स्कूलों और विश्वविद्यालयों में मनाने की अनुमति नहीं है, और सार्वजनिक रूप से धार्मिक गतिविधियों को अपराध माना जाता है। धार्मिक स्थलों में कम्युनिस्ट नेताओं की तस्वीरें लगाना अनिवार्य है, और पार्टी के आदेशों का पालन करना जरूरी है। इस तरह, चीन में धर्म अब भी सरकार के नियंत्रण में है, और सांस्कृतिक क्रांति के घाव आज भी समाज पर दिखाई देते हैं।
माओ ज़ेडोंग द्वारा शुरू की गई यह नीति आज भी जारी है, भले ही इसे नए रूप में लागू किया जा रहा हो। चीन ने धर्म को खत्म करने के लिए जो प्रयास किए, वे इतिहास में एक क्रूर अध्याय के रूप में दर्ज हो चुके हैं। धर्म को अफीम मानकर उसे जड़ से उखाड़ने की कोशिश की गई, लेकिन लोगों की आस्था को पूरी तरह से मिटाया नहीं जा सका। सरकार के तमाम प्रतिबंधों के बावजूद, लोग अपने विश्वास को गुप्त रूप से निभाते रहे हैं। इस तरह, चीन में धर्म और राजनीति के बीच संघर्ष आज भी जारी है।