![]() |
A thief tried to rob Lord Krishna |
एक बार एक चोर था, जो अपनी चोरी की आदत के कारण हमेशा खतरे में रहता था। एक दिन उसने राजा के महल में चोरी करने की कोशिश की, लेकिन सैनिकों ने उसे पकड़ने के लिए दौड़ लगाई। वह अपनी चालाकी से भाग निकला और एक सत्संग में जाकर बैठ गया। चूंकि सैनिकों को लगा कि चोर कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं होगा, वे उसे पहचान नहीं पाए और वापस चले गए। इस सत्संग में एक कथावाचक श्रीकृष्ण के सौंदर्य का वर्णन कर रहे थे। उन्होंने बताया कि बालक कृष्ण के सिर पर सोने का मुकुट था, जिसमें हीरे और मोती जड़े हुए थे। उनकी कमर में सोने की करधनी थी और हाथों में सोने के चूड़े थे। यह सुनते ही चोर के मन में विचार आया कि यदि वह इस बालक को लूट ले तो जीवनभर अमीर बन सकता है।
सत्संग खत्म होने के बाद चोर कथावाचक के पास गया और चाकू दिखाकर उनसे उस बालक का पता पूछने लगा। कथावाचक ने कहा कि वह बालक वृंदावन में रहता है और उसका नाम कृष्ण है। उसके माता-पिता यशोदा और नंद बाबा हैं। चोर ने यह सब ध्यान से सुना और अगले ही दिन वृंदावन के लिए निकल पड़ा। वहां पहुंचकर उसने लोगों से यशोदा और नंद बाबा का पता पूछा और जंगल का रास्ता खोजा, जहां कृष्ण गौचारण के लिए जाते थे।
चोर कई दिनों तक जंगल में बैठा रहा, लेकिन कृष्ण उसे नहीं दिखे। धीरे-धीरे, उसके मन में कृष्ण का नाम बस गया। अब वह दिन-रात कृष्ण-कृष्ण जपने लगा। उसे कृष्ण की छवि याद हो गई—सांवला रंग, घुंघराले बाल, सुंदर नेत्र। इस तरह, अनजाने में ही वह कृष्ण का ध्यान करने लगा। उसने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक वह कृष्ण को नहीं देख लेगा, तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करेगा। दस दिन बीत गए, लेकिन कृष्ण नहीं आए। फिर एक दिन, सचमुच कृष्ण गौचारण के लिए उस जंगल में आ गए। उन्होंने वही सोने का मुकुट, करधनी और आभूषण पहने हुए थे। चोर की आंखें चमक उठीं। उसने सोचा कि यह सबसे सही मौका है।
चोर को समझ नहीं आ रहा था कि यह बालक इतना निडर और प्रेमपूर्वक अपने गहने क्यों दे रहा है। वह बार-बार कृष्ण को देख रहा था। तभी कृष्ण ने चोर को स्पर्श कर लिया। जैसे ही उन्होंने उसे छुआ, चोर के अंदर कुछ बदलने लगा। उसके हृदय से सारा पाप धुलने लगा। वह अचानक समझ गया कि यह कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं भगवान हैं। उसके अंदर पश्चात्ताप की लहर दौड़ गई। वह रोते हुए कृष्ण के चरणों में गिर पड़ा और बोला, "प्रभु, मैं मूर्ख था जो आपको लूटने आया। आप तो कृपा के सागर हैं। मैं कितना भी बड़ा पापी क्यों न होऊं, लेकिन आपने मुझे स्वीकार कर लिया।"
भगवान कृष्ण मुस्कुराए और बोले, "अब तू मेरा हो गया। तेरा उद्धार निश्चित है।" यह कहकर वे चोर को अपने साथ गोलोक ले गए।
इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि चाहे कोई कितना भी पापी हो, यदि वह सच्चे हृदय से भगवान की शरण में आ जाता है, तो भगवान उसे स्वीकार कर लेते हैं। भगवान राम ने भी कहा है कि यदि करोड़ों ब्राह्मणों का हत्यारा भी उनकी शरण में आ जाए, तो वे उसे त्यागते नहीं, बल्कि उसे स्वीकार कर लेते हैं। इस संसार में कोई भी मनुष्य इतना बड़ा पापी नहीं हो सकता कि भगवान की करुणा उसे शरण में लेने से मना कर दे। इसलिए जो भी व्यक्ति अपने जीवन में कितनी ही गलतियां कर चुका हो, यदि वह सच्चे मन से भगवान के चरणों में समर्पण कर दे, तो उसका उद्धार निश्चित है।
भगवान की कृपा कितनी महान है, इसका एक और उदाहरण यह है कि वे सेवा करने का अवसर भी उन्हीं को देते हैं, जो उनके प्रिय होते हैं। यदि किसी को गरीबों और भूखों को भोजन देने का अवसर मिलता है, तो यह समझना चाहिए कि भगवान ने उसकी सेवा स्वीकार की है। किसी के हाथों से कोई पुण्य कर्म हो रहा हो, तो यह उसकी योग्यता नहीं, बल्कि भगवान की कृपा है।
एक बार एक संत बहुत बड़ा भंडारा चला रहे थे। वे हजारों लोगों को भोजन करवा रहे थे, लेकिन उनके चेहरे पर कभी घमंड नहीं आता था। किसी ने उनसे पूछा, "आप इतना बड़ा पुण्य करते हैं, फिर भी आपकी आंखें हमेशा नीची रहती हैं। आप गर्व से सिर ऊँचा क्यों नहीं रखते?"
संत मुस्कुराए और बोले, "लोग भ्रम में हैं कि मैं यह सब कर रहा हूँ, लेकिन सच्चाई यह है कि देने वाला कोई और है। मैं तो बस माध्यम हूँ।"
एक और कथा है, जिसमें एक साधु मंदिर में बैठकर भगवान से प्रार्थना कर रहा था, "प्रभु, मुझे बहुत भूख लगी है।" उसी समय, एक नगरसेठ को अचानक अजीब बेचैनी महसूस हुई। उसे लगा कि शायद कोई भूखा होगा, इसलिए उसने कुछ भोजन लिया और मंदिर की ओर चल पड़ा। मंदिर में उसने उस साधु को भोजन दिया, लेकिन जब साधु ने भगवान को धन्यवाद दिया और सेठ का नाम तक नहीं लिया, तो सेठ को अजीब लगा।
सेठ बोला, "मैंने तुझे भोजन दिया और तू भगवान को धन्यवाद दे रहा है?"
साधु हंसते हुए बोला, "मैंने भगवान से कहा था कि भूख लगी है, मैंने तुमसे तो कुछ नहीं मांगा था। भगवान ने तुम्हें प्रेरित किया और तुमने आकर भोजन दे दिया। तुम कल नहीं आओगे, तो कोई और आएगा। लेकिन मेरा भगवान मुझे रोज भोजन देता रहेगा।"
यह कथा हमें सिखाती है कि जब हम किसी की मदद करते हैं, तो हमें घमंड नहीं करना चाहिए। असली दाता भगवान हैं, हम तो सिर्फ उनके माध्यम हैं। अगर हमें सेवा करने का अवसर मिला है, तो यह भी भगवान की कृपा है।
इसीलिए, जीवन में कभी यह न सोचें कि हम कितने बड़े पापी हैं, हमारे लिए कोई आशा नहीं है। भगवान की करुणा हमारे किसी भी पाप से बड़ी है। उन्होंने एक चोर को भी अपना लिया, तो वे हमें क्यों नहीं अपनाएंगे? बस एक बार सच्चे हृदय से उनके चरणों में समर्पण कर दें और उनसे प्रार्थना करें, "हे प्रभु, हम आपके हैं, हमें स्वीकार करो।" जब हम ऐसा करेंगे, तो हमारा जीवन स्वतः ही बदल जाएगा और हमें वास्तविक सुख की अनुभूति होगी।