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La Niña Failed? |
जनवरी 2025 में तापमान की असामान्य वृद्धि ने वैज्ञानिकों को हैरानी में डाल दिया है। आमतौर पर ला नीना (La Niña) का प्रभाव धरती के तापमान को ठंडा करने वाला होता है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। बल्कि, जनवरी का तापमान औसत से 1.75 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, जो जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है। यह स्थिति वैज्ञानिकों के लिए चिंता का विषय बन गई है क्योंकि ला नीना के बावजूद धरती गर्म बनी हुई है।
ला नीना एक जलवायु पैटर्न है जो आमतौर पर प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) में ठंडे पानी के विस्तार के कारण बनता है। इसके कारण दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर समुद्र की सतह का तापमान ठंडा हो जाता है और यह भारत तथा ऑस्ट्रेलिया में अधिक वर्षा लाने में सहायक होता है। लेकिन इस बार इसका ठंडा प्रभाव दिखाई नहीं दिया, जिससे वैज्ञानिकों को आश्चर्य हुआ है। जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले 19 महीनों में से 18 महीने ऐसे रहे हैं जब वैश्विक औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, ला नीना आमतौर पर सितंबर में सक्रिय हो जाता है, लेकिन इस बार यह दिसंबर 2024 में सक्रिय हुआ, जिसके कारण इसे अपनी पूरी ताकत हासिल करने का समय नहीं मिला। यह देर से आने वाला ला नीना अपेक्षाकृत कमजोर था और इसने उतना प्रभाव नहीं डाला जितना आमतौर पर पड़ता है। इसके अलावा, पृथ्वी के वातावरण में बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) और अन्य ग्रीनहाउस गैसों (Greenhouse Gases) ने भी तापमान को कम होने नहीं दिया। वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ने से धरती की गर्मी अंतरिक्ष में वापस नहीं जा पाती और इसी कारण वैश्विक तापमान लगातार बढ़ रहा है।
एक और कारण यह भी है कि हाल के वर्षों में वायुमंडल में एरोसोल (Aerosol) की मात्रा कम हुई है। एरोसोल सूर्य की किरणों को परावर्तित करने में मदद करता है, जिससे धरती पर गर्मी कम पड़ती है। लेकिन, अब हवा में प्रदूषण नियंत्रण के कारण एरोसोल की मात्रा कम हो गई है, जिससे सूर्य की किरणें अधिक मात्रा में पृथ्वी की सतह तक पहुंच रही हैं और वातावरण को गर्म कर रही हैं। इसके अलावा, महासागरों की गर्मी सोखने की क्षमता भी प्रभावित हो रही है, जिससे वे अपेक्षा से अधिक गर्म हो रहे हैं।
एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इस बार बारिश भी अपेक्षाकृत कम हुई है। आमतौर पर, ला नीना के दौरान अधिक वर्षा होती है जिससे धरती ठंडी हो जाती है। लेकिन इस बार, बारिश कम होने के कारण तापमान में कोई खास गिरावट नहीं आई। वैज्ञानिकों का मानना है कि वर्षा कम होने का एक कारण यह भी है कि वातावरण में नमी की मात्रा बदल रही है। पेड़ों की कटाई और जंगलों की संख्या में कमी के कारण वातावरण में कार्बन सोखने की प्राकृतिक क्षमता प्रभावित हुई है।
अगर यह स्थिति जारी रहती है, तो आने वाले वर्षों में मौसम में और भी अधिक अस्थिरता देखने को मिलेगी। अत्यधिक गर्मी के कारण सूखे, लू (Heatwaves) और बाढ़ की घटनाएं बढ़ सकती हैं। भारत जैसे देश, जहां कृषि मानसून पर निर्भर करती है, वहां जलवायु परिवर्तन के ये प्रभाव गंभीर हो सकते हैं। तापमान बढ़ने से कृषि उत्पादन पर भी असर पड़ेगा और खाद्य सुरक्षा (Food Security) को लेकर संकट बढ़ सकता है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इसी तरह जारी रहा, तो पृथ्वी का तापमान अगले कुछ दशकों में और बढ़ सकता है। इसका सबसे बड़ा असर ध्रुवीय बर्फ (Polar Ice) के पिघलने और समुद्र के जल स्तर में वृद्धि के रूप में देखने को मिलेगा। इसके अलावा, जंगलों में आग लगने की घटनाएं भी बढ़ सकती हैं, जो वन्यजीवों और पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) के लिए हानिकारक साबित होगी।
इस संकट से निपटने के लिए आवश्यक है कि हम ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करें और सतत विकास (Sustainable Development) की ओर बढ़ें। सरकारों को चाहिए कि वे सख्त पर्यावरणीय नीतियां लागू करें, उद्योगों से कार्बन उत्सर्जन कम करने के उपाय करें और हरित ऊर्जा (Green Energy) को बढ़ावा दें। इसके अलावा, व्यक्तिगत स्तर पर भी हमें ऊर्जा की खपत कम करनी चाहिए, पेड़ लगाने चाहिए और अधिक सतर्कता से प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना चाहिए।
अगर हम अभी से जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए ठोस कदम नहीं उठाते, तो आने वाली पीढ़ियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। धरती को बचाने की जिम्मेदारी हम सबकी है और इसके लिए हमें मिलकर प्रयास करने होंगे। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि यदि हमने अभी ध्यान नहीं दिया, तो आने वाले वर्षों में इस संकट से निपटना और कठिन हो जाएगा।