Supreme Court Slams Election Freebies! जानें पूरा मामला।

NCI

Supreme Court Slams Election Freebies! 

 सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में चुनावों से पहले मुफ्त सुविधाएं (freebies) देने की प्रथा पर गंभीर सवाल उठाए हैं। इस पर अदालत ने यह टिप्पणी की कि क्या भारत में एक "परजीवी वर्ग" (parasite class) तैयार किया जा रहा है, जहां लोग बिना काम किए सरकारी लाभों पर निर्भर हो रहे हैं। यह मुद्दा विशेष रूप से तब चर्चा में आया जब महाराष्ट्र में "लाडकी बहन योजना" की घोषणा की गई, जिसके तहत 21 से 65 वर्ष की महिलाओं को हर महीने ₹1500 देने का वादा किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर नाराजगी जताते हुए कहा कि इस तरह की योजनाएं लोगों को काम करने से हतोत्साहित कर सकती हैं और उन्हें आलसी बना सकती हैं।

चुनावों के समय विभिन्न राजनीतिक दल फ्रीबीज की घोषणा करते हैं, जैसे मुफ्त बिजली, मुफ्त राशन, महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा, बेरोजगारों को भत्ता आदि। दिल्ली चुनावों में भी ऐसा ही देखने को मिला, जहां सभी प्रमुख पार्टियों ने जमकर मुफ्त सुविधाओं की घोषणा की। अदालत ने इस पर चिंता व्यक्त की कि यदि इस तरह की योजनाएं बिना किसी ठोस आर्थिक योजना के चलाई जाती हैं, तो इससे देश की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑस्टीन जॉर्ज मसी शामिल थे, ने कहा कि चुनावों के पहले इस तरह की घोषणाएं एक गलत प्रवृत्ति (trend) बनती जा रही हैं, जिससे नागरिकों की उत्पादकता (productivity) पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

यह मुद्दा तब उठा जब सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें शहरी क्षेत्रों में बेघर लोगों (homeless) के लिए "राइट टू शेल्टर" (आवास का अधिकार) की मांग की गई थी। इस पर चर्चा के दौरान कोर्ट ने देखा कि सरकारें लोगों को काम देने की बजाय सीधे पैसे और राशन देकर उन्हें परजीवी बना रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इस तरह की नीतियां केवल अल्पकालिक (short-term) लाभ देती हैं लेकिन दीर्घकालिक (long-term) रूप से देश की आर्थिक स्थिति को नुकसान पहुंचा सकती हैं।

केंद्र सरकार के एटर्नी जनरल वेंकट रमनी ने अदालत को बताया कि सरकार जल्द ही "अर्बन पॉवर्टी एलिवेशन मिशन" (urban poverty alleviation mission) लॉन्च करने जा रही है, जिससे शहरी गरीबों को आवास और रोजगार के अवसर मिलेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर जोर दिया कि सरकार को एक समयसीमा (timeline) तय करनी चाहिए और सभी राज्यों से जानकारी इकट्ठा करनी चाहिए, ताकि ऐसी योजनाएं पूरे देश में समान रूप से लागू की जा सकें।

सुप्रीम कोर्ट का यह बयान आया जब एक याचिकाकर्ता (petitioner) ने अदालत में तर्क दिया कि सरकारें अमीर लोगों के लिए ही योजनाएं बनाती हैं और गरीबों के लिए सहानुभूति (compassion) नहीं रखतीं। इस पर जस्टिस गवई ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि गरीबों के लिए पहले ही कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिसमें मुफ्त राशन, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त चिकित्सा आदि शामिल हैं। उन्होंने कहा कि यह कहना गलत होगा कि सरकारें केवल अमीरों का ध्यान रखती हैं।

यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर चिंता जताई है। पिछले साल भी दिसंबर में, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस मनमोहन की बेंच ने आश्चर्य व्यक्त किया था जब केंद्र सरकार ने बताया कि भारत में 81 करोड़ लोगों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) 2013 के तहत मुफ्त या सब्सिडी वाले राशन दिए जा रहे हैं। तब कोर्ट ने कहा था कि आखिर कब तक सरकारें इस तरह की फ्रीबीज देती रहेंगी? कोर्ट ने सुझाव दिया कि सरकारों को लोगों को मुफ्त चीजें देने की बजाय रोजगार के अवसर बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें।

दिल्ली हाई कोर्ट में भी इस मुद्दे पर एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें 5 फरवरी को हुए दिल्ली चुनाव में पार्टियों द्वारा मुफ्त सुविधाओं की घोषणाओं को "भ्रष्ट आचरण" (corrupt practices) करार देने की मांग की गई थी। पूर्व जज एसएन ढींगरा ने इस याचिका में कहा कि चुनाव आयोग को इस तरह की घोषणाओं को असंवैधानिक घोषित करना चाहिए। हालांकि, दिल्ली हाई कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया और याचिकाकर्ता को सुप्रीम कोर्ट जाने की सलाह दी, क्योंकि वहां पहले से ही इस पर सुनवाई चल रही थी।

इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों में भी टकराव देखा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी पर निशाना साधते हुए कहा था कि वे "रेवड़ियां" बांटने का काम कर रहे हैं। हालांकि, विपक्षी दलों ने इस पर पलटवार करते हुए कहा कि यदि करदाताओं (taxpayers) के पैसे से गरीबों का जीवन आसान बनाया जाता है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा भी इस मामले में फंसी हुई है, क्योंकि उसने भी हाल ही में अपने घोषणापत्र में कई मुफ्त योजनाओं की घोषणा की थी।

दिल्ली में हाल ही में हुए चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में 16 वादे किए थे, जिनमें से सात प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण (direct cash transfer) से संबंधित थे। इनमें महिलाओं को ₹2000 मासिक पेंशन, गर्भवती महिलाओं को ₹25000, और स्कूली शिक्षा से लेकर स्नातकोत्तर (post-graduation) तक मुफ्त शिक्षा शामिल थी। इसके अलावा, एलपीजी सिलेंडर की कीमतों में छूट, गरीब युवाओं को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए वित्तीय सहायता आदि की घोषणाएं भी की गई थीं।

राजनीतिक दलों द्वारा इस तरह के वादे किए जाने से सवाल उठता है कि इनके लिए पैसा कहां से आएगा? चुनावी घोषणाओं में फ्री बिजली, फ्री पानी, मुफ्त यात्रा जैसी चीजें शामिल होती हैं, लेकिन इन पर खर्च होने वाले धन का स्रोत नहीं बताया जाता। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि इस पर रोक नहीं लगाई गई, तो देश की वित्तीय स्थिति (financial stability) पर नकारात्मक असर पड़ेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया बयान में इस बात पर जोर दिया कि देश को इस समस्या का दीर्घकालिक समाधान (long-term solution) खोजना होगा। अदालत ने सुझाव दिया कि सरकारें जनता को फ्री सुविधाएं देने की बजाय उनके लिए रोजगार के अवसर पैदा करें, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि इस प्रवृत्ति को नहीं रोका गया, तो आने वाले समय में सरकारों पर वित्तीय बोझ बढ़ता जाएगा और यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।

अब देखना होगा कि इस मुद्दे पर सरकार और राजनीतिक दल क्या कदम उठाते हैं। क्या मुफ्त योजनाओं को सीमित किया जाएगा या फिर यह प्रथा जारी रहेगी? सुप्रीम कोर्ट का यह कड़ा रुख संकेत देता है कि भविष्य में इस पर सख्त नियम बनाए जा सकते हैं। हालांकि, जनता की भी इसमें अहम भूमिका होगी, क्योंकि वे ही तय करेंगे कि वे लुभावने वादों के आधार पर वोट देंगे या फिर दीर्घकालिक विकास और आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता देंगे।

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Ok, Go it!
To Top